पांसा खुद-ब-खुद नहीं पलटता, हमारे कर्म के द्वारा हम स्वयं ही उसे पलटाते हैं: आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज  



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         अनिल उपाध्याय 

            खातेगांव 

बाहरी पदार्थ का मूल भीतरी पदार्थ याने कर्म पर आधारित है। ज्ञानी उस भीतरी मूल पर हमेशा दृष्टि रखते हैं लेकिन अज्ञानी जीव कभी भीतरी पदार्थ को देख और समझ नहीं पाते। उनकी दृष्टि हमेशा बाहरी पदार्थ पर ही बनी रहती है। वे मानते हैं कि इसके माध्यम से ही सब कुछ संचालित हो रहा है। एकांकी धारणा के कारण उन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि बाहर जो दिख रहा है वह भीतरी पदार्थ का मूल है, जो गौण है। उसमें जो परिवर्तन होता है वह भीतरी तत्व के ऊपर ही आधारित है। इसलिए हमें कौन मुख्य है उसकी ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। निस्वार्थ मुख्य होता है और उसका संचालन बाहर होता रहता है। हमें तेज धूप तो दिखती है लेकिन उसकी जड़ सूरज को हम नहीं देख पाते। उक्त उद्गार आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने बुधवार को खातेगांव में श्रद्धालुओं के बीच व्यक्त किए।


आचार्यश्री ने कहा कभी भी वर्तमान पद-प्रतिष्ठा पर अभिमान नहीं करना चाहिए। क्यों कि कोयला भी हीरा हो सकता है और हीरे का कोयले में परिवर्तन भी संभव है। पौराणिक ग्रंथों में ऐसे कई कथानक सामने आते हैं जिसमें कभी राजा, रंक हो जाता है और कभी रंक, राजा बन जाता है। यह परिवर्तन उसके कर्म पर आधारित होता है। रावण इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है। विद्याधर और अधिपति होते हुए भी उसके भाव सही नहीं थे। यदि वह हट और अहंकार छोड़ देता, तो उसकी सोने की लंका नहीं जलती। पांसा खुद-ब-खुद नहीं पलटता, हमारे कर्म के द्वारा हम स्वयं ही उसे पलटाते हैं। 


जैन समाज के प्रवक्ता नरेंद्र चौधरी व पुनीत जैन ने बताया कि प्रवचन के पूर्व श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री की भक्तिभाव से संगीतमय पूजन की। आचार्यश्री की आहारचर्या का सौभाग्य मुनिश्री दुर्लभसागरजी के गृहस्थ अवस्था के माता-पिता और उनके परिवार को प्राप्त हुआ। संध्याकाल में मुनिसंघ ने सामूहिक गुरुभक्ति की, वहीं श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री की आरती की।